दवाओं के संदर्भ में लोगों की जानकारी सीमित है, बावजूद इसके देश में 42 प्रतिशत लोग सिरदर्द, फ्लू, वायरल, खांसी और दर्द के लिए बिना डॉक्टर की सलाह के दवाएं लेते हैं, जिसे ओवर द काउंटर ड्रग्स या ओटीसी दवाएं कहा जाता है। खुद डॉक्टर बनने की आदत हमें बीमार और बहुत बीमार करने के लिए काफी है। जिसका असर एक या दो दिन में नहीं बल्कि तीन से चार साल के अंदर नजर आता है। साधारण जुखाम या सिरदर्द के लिए लोग डॉक्टर के पास नहीं जाते और दुसरों के अनभव के आधार पर इस्तेमाल की गई दवाएं ही खरीदने में समझदारी मानते हैं। व्यक्तिगत स्तर पर ही नहीं अस्पतालों में भी एंटीबायोटिक दवाआें के अधिक इस्तेमाल को रोकने के लिए पहल की गई है।
कहीं बेअसर न हो जाए दवाएं:
वल्लभ भाई पटेल चेस्ट इंस्टीट्यूट के पूर्व निदेशक प्रो. राजेन्द्र प्रसाद कहते हैं कि एंटीबायोटिक दवाआें के अधिक इस्तेमाल का सीधा मतलब है कि दवाआें का असर खत्म होगा। हमसें से 95 प्रतिशत लोगों के शरीर में टीबी के वायरस होते हैं, इसका आश्य यह नहीं कि सभी को टीबी हो जाएगा। लेकिन दवाआें के अधिक इस्तेमाल के बाद शरीर में वायरस के खिलाफ बनने वाले सुरक्षा कवच के प्रति वायरस ऑटो इम्यून हो जाते हैं और उनपर दवाओं का असर लगभग खत्म हो जाता है। ऐसे में रोगप्रतिरोधक क्षमता कम होने से आसानी से कैंसर, टीबी और एड्स जैसी बीमारियों का हमला हो सकता है, एमडीआर और टीडीआर टीबी इस बात का ही प्रमाण है कि दवाओं का प्रयोग सही समय पर नहीं किया गया, जिसके बाद दवा ही बेहसर हो गईं। दिल्ली स्वास्थ्य सेवा के प्रमुख डॉ. एनवी कामत कहते हैं कि अत्यंत जरूरी 400 दवाओं में से हाल ही में दस दवाओं को हटाया गया है, वह इसलिए कि इन दवाओं का असर अब कम हो रहा है। उदाहरण के लिए ऑफ्लॉक्सिन दवा टीबी मरीजों को दी जाती है, इसे जरूरी दवाओं की सूची से बाहर करना इसलिए जरूरी हो कि अगर किसी साधारण मरीज को टीबी हो गया तो इस दवा का बाद में उसपर असर नहीं होगा। एशियन इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस के इंटरनल मेडिसन विभाग के प्रमुख डॉ. राजेश कुमार बुद्धिराजा कहते हैं कि साधारण जुखाम या सिरदर्द के लिए एंटीबायोटिक नहीं लेनी चाहिए, इसका सीधा मतलब है कि हम भविष्य के लिए खुद को और बीमार कर रहे हैं। दरअसल दवाओं की जगह शरीर का रक्षा कवच या रोगप्रतिरोधक क्षमता मजबूत कर भी वायरल के खतरे से बचा जा सकता है। इसके लिए खाने में पौष्टिक आहार और विटामिन सी की मात्रा बढ़ाए।
20 साल तक कोई नई एंटीबायोटिक नहीं:
दवाओं का अधिक इस्तेमाल करते हैं तो यह जान लिजिए कि विश्वभर की कोई भी फार्मा कंपनी अगले 20 तक कोई भी नई एंटीबायोटिक दवा तैयार नहीं करने वाली। हाल ही में एंटीबायोटिक के अधिक इस्तेमाल को रोकने के लिए अभियान शुरू किया गया जिसमें कार्टून पात्र चाचा नेहरू और साबू के जरिए दवाआें के अधिक इस्तेमाल को रोकने के लिए संदेश जारी किया गया। अभियान के प्रमुख डॉ. आशीष पाठक कहते हैं कि थर्ड जेनरेशन एंटीबायोटिक दवाओं के बाद अब चौथे चरण की एंटीबायोटिक दवाएं बाजार में आने में कम से कम 20 साल का समय लगेगा, इस आधार पर हमें मौजूद दवाओं से सहारे ही निरोग रहना होगा। एंटीबायोटिक के अधिक प्रयोग को रोकने के लिए ही सरकार ने दवाओं का नया एचएस शिड्यूल जारी किया, जिसके आधार पर ही दवा विक्रेताओं को दवा बेचने का निर्देश दिया गया।
कम दवा लिखें डॉक्टर:
पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया के डॉ. रामानंद लक्ष्मीनारायन ने बताया कि एंटीबायोटिक और अस्पताल से प्राप्त संक्रमण को दूर करने के लिए पहली बार ग्लोबल फोरम ऑफ बैक्टीरिया इंफेक्शन के साथ एमओयू पर हस्ताक्षर किया गया है। देश में एचएआई और एंटी बायोटिक रेसिसटेंस रोकने के लिए फार्मोसी ऑडिटरी सिस्टम शुरू किया जा सकता है। जिससे पता लग सके कि किस अस्पताल में किस मरीज को कितनी बार एंटीबायोटिक दवाएं दी गई हैं।
क्या है आंकड़े
-डब्लूएचओ के अनुसार दिल्ली एनडीएमके वन (सुपरबग) संक्रमण का खतरा बढ़ गया है।
-अस्पताल में जन्म लेने वाले 67 प्रतिशत शिशु एस टाइफी के शिकार। इन्हें बेवजह एम्पिसलिन दवाएं दी गईं।
-सेक्सुअल ट्रांसमिटेट डिसीज सेंटर (एसटीआई)पर काम करने वाले 45 प्रतिशत ट्रेटासाइक्लि, सिप्रोफोलॉक्सिन और पेन्सिलन के प्रति एंटी बायोटिक देखा गया।
-प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर ओआई स्टेन और कोलोराइड का संक्रमण देखा गया।
क्या हैं एंटीबायोटिक के अन्य तथ्य:
-जन्म के पहले चार हफ्ते में ही दस लाख बच्चे हर साल मर जाते हैं।
-जिसमें से 19,000 में रक्त के सेपिस नामक संक्रमण के शिकार होते हैं।
-30 प्रतिशत नवजात को यह संक्रमण मां को दी गई एंटीबायोटिक से मिलता है।
दवा नहीं वैक्सीन पर अधिक जोर:
भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद के पूर्व निदेशक डॉ. एनके गांगुली कहते हैं कि विभिन्न अध्ययनों में पाया गया कि देश में निमोनिया, मलेरिया और बुखार के लिए दी जाने वाली दवाएं पहले जितनी कारगर नहीं। टर्सरी केयर और प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर दवाओं की जगह वैक्सीन के इस्तेमाल की जरूरत महसूस की गई है। एंटी बायोटिक के बढ़ते प्रयोग को सीमित करने के लिए जरूरी है कि वैक्सीन की उपलब्धता पर जोर दिया जाए। मौसम बदलने के समय होने वाले वायरल बुखार, फ्लू या खांसी से बचने के लिए जरूरी है कि वैक्सी ग्रिप वैक्सीन लगाया जाए। इसे हर साल वायरल बुखार के बदले स्टेन के साथ लागू किया जाता है। जो मौसम बदलने के अनुसार शरीर में रोगों से लड़ने की क्षमता को कमजोर नहीं होने देता। इसके साथ ही डॉक्टर देसी इलाज को भी कारगर मानते हैं। उदाहरण के लिए जुखाम में जोसांधा, काली मिर्च की चाय और फ्लू में काढ़ा बेहतर विकल्प है।