दिमाग को कुंद करता है इंटरनेट का अधिक इस्तेमाल

एम्स सहित नेशनल ब्रेन रिसर्च इंस्टीट्यूट ने मिलकर किया शोध
करंट साइक्रेटिक रिवीव में प्रकाशित हुआ है शोध पत्र
किसी भी तरह की जानकारी या सूचना के जुटाने के अलावा, दोस्तों से जुड़ने या फिर खुद का प्रचार करने के लिए लोग इंटरनेट का प्रयोग कर हैं, इंटरनेट पर लोगों की निर्भरता दिमाग को कमजोर कर रही है। हाल ही में एम्स के विशेषज्ञों से जुड़े रिसर्च नेटवर्क ऑफ मेडिकल साइंस के चिकित्सकों ने इस बात का खुलासा किया है। शोध पत्र करंट साइक्रेटिक रिवीव में प्रकाशित हुआ है।
क्या इंटरनेट का इस्तेमाल एक तरह के ड्रग्स एडिक्शन के जैसा है? विशेषज्ञों ने इस का जवाब जानने के लिए इंटरनेट के इस्तेमाल के समय मानव मस्तिष्क की कोशिकाओं में होने वाले बदलाव का अध्ययन किया। जिसमें पाया गया कि बार-बार और बहुत अधिक इंटरनेट का प्रयोग न्यूरोकागनेटिव डायफंक्शन बढ़ाता है, जिससे मतलब है कि एक सामान्य इंसान की न्यूरोसन्स एक निर्धारित अंतराल के बाद क्रियाप्रतिक्रिया करती है, लेकिन अधिक इंटरनेट के इस्तेमाल से इन्हें बार-बार प्रतिक्रिया देना पड़ता है, जिससे मष्तिष्क में इरिटेशन या झुंझलाहट वाली स्थिति पैदा होती है। अधिक समय से यही स्थिति बने रहने पर कोशिकाएं क्रिया प्रतिक्रिया देना बंद कर देती हैं। मस्तिष्क के न्यूरल नेटवर्क के बाधित होने से व्यक्ति को तनाव, चिड़चिड़ेपन और याद्ददश्त कम होने की शिकायत होने लगती है। रिसच टीम का कहना है कि अधिक समय तक इंटरनेट का इस्तेमाल या हर बात के लिए नेट पर निर्भरता आपके सामाजिक जीवन को भी प्रभावित करती है। हर बात का हल इंटरनेट पर उपलब्ध है, जिसकी वजह से सामाजिक जीवन का दायरा कम होने लगता है। अध्ययन और शोध टीम में शामिल एम्स के डॉ. मुनीब फैक और डॉ. आशुतोष कुमार ने बताया कि मस्तिष्क एक बेहद ही जटिल अंग है, इसकी गतिविधि को जितना सामान्य चलने दिया जाएं उतना ही अधिक बेहतर परिणाम मिल सकता है, लेकिन इंटरनेट का प्रयोग करते समय हम दिमाग पर अधिक जोर लगाने के लिए बाध्य हो जाते हैं और दिमाग के न्यूरोन्स का नेटवर्क उलझने लगता है। चिकित्सकों के समूह का कहना है कि अधिक इंटरनेट की समस्या अब वैश्विक रूप ले रही हैं, जिसका सही समय पर समाधान ढुंढना जरूरी है। डिसीस ऑफ ह्युमन सिविलाइजेश के लेखक डॉ. विकास पारिख ने अपनी किताब में लिखा है कि अधिक इंटरनेट के प्रयोग का असर दिमाग के फं्रटियल लोब पर पड़ता है, जो निर्णय लेने की क्षमता को प्रभावित करता है, इसे हिप्पो-कैंपस भी कहा जाता है। जिसका असर आने वाली पीढ़ी पर भी पड़ेगा, जो वर्तमान पीढ़ी अपेक्षा इंटरनेट पर कहीं अधिक निर्भर होगी। शोध करने वाले ईईडीआरएन ( इंथोजिकली इल्यूशिव डिस्ऑर्डर रिसर्च नेटवर्क) के चिकित्सकों ने इसके उपाय के लिए सभी शिक्षण संस्थानों में डृ और डूनॉट की गाइडलाइन भी तैयार की है।

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