नई दिल्ली,
संक्रामक रोगों को रोकने के लिए पूरे जीवन भर वयस्क प्रतिरक्षण टीकाकरण (इम्युनाइजेशन वैक्सीनेशन)की सलाह दी जाती है। लंबे समय में रोग निवारण के लिए टीका पहला कदम होता है। निवारक रोग जैसे कि इन्फ्लुएंजा और फ्लू को एकदम प्रथम चरण में ही ठीक किया जा सकता है। दुर्भाग्य से भारत में वयस्क टीकाकरण की स्थिति संतोषजनक नहीं है। सामान्य जागरूकता का अभाव और समस्या के बारे में गलतफहमियां इसके कुछ महत्वपूर्ण कारकों में आते हैं। भारत में वयस्क आबादी में अनुशंसित टीकों के साथ अद्यतन होने का लक्ष्य अभी काफी दूर है।
भारत में फ्लू और निमोनिया जैसे संक्रामक रोगों के अधूरे और अपर्याप्त टीकाकरण के परिणामस्वरूप अस्पताल में भर्ती होने और इलाज पर काफी और अनावश्यक खर्च करना पड़ता है। इस साल के विश्व टीकाकरण सप्ताह में टीकाकरण कार्यक्रम से जुड़े मिथकों और गलत जानकारियों को दूर करने की जरूरत है। देश की अधिकांश आबादी का मानना है कि टीकाकरण केवल शिशुओं के लिए है, न कि वयस्कों के लिए जो तंदुरुस्त हैं। इस नजरिये को तेजी से बदलने की जरूरत है। वयस्क टीकाकरण पर ध्यान देना समय की माँग है।
मैक्स साकेत के पल्मोनोलॉजिस्ट, डॉ. विवेक नांगिया ने कहा कि, “मरीज कल्चर्ड न्युमोनोकोकस जैसे रोग से पीड़ित होते हैं जिसे टीके के सहारे रोका जा सकता है। इसके अलावा, यह रोग जल्दी पहचान में नहीं आता है, इसलिए वैक्सीन जैसे विकल्प सर्वश्रेष्ठ होते हैं। साथ ही मरीजों के उपचार के परिणामों में सुधार में टीके की महत्वपूर्ण भूमिका होती है, इसलिए हम अपने रोगियों को इन्फ्लुएंजा और कोविड जैसी बीमारियों के विरूद्ध वैक्सीन लगवाने की सलाह देते हैं।
प्रतिरक्षण (इम्युनाइजेशन) के विषय में आम मिथक और गलत धारणाएं हैं जो प्रतिरक्षण तंत्र को नुकसान पहुँचा सकती हैं और खर्च का बोझ बढ़ा सकती हैं। ऐसी भ्रामक और गलत धारणाओं को बदलने की ज़रूरत है। टीकाकरण नहीं होने से मजबूत प्रतिरक्षण शक्ति कमजोर हो सकती है क्योंकि रोग किसी को भी, विशेषकर सह-रुग्णता ( कोमोरबिडिज) से पीड़ित लोगों को संक्रमित कर सकते हैं। टीके को लेकर धारणा यह है कि उनका प्रभाव कमजोर होता है और वे सहायक नहीं होते। लेकिन देश में टीकाकरण के प्रति जागरूकता का स्तर निम्न है। पश्चिमी देशों की तुलना में भारत में फ्लू के टीके जैसे प्रतिरक्षण का महत्व काफी कम है।
महामारी के कारण कोविड लिए काफी अधिक जागरूकता है, और लोग टीका लेने के बारे में अधिक जागरूक तथा चर्चा के लिए तैयार हैं।
बाल प्रतिरक्षण भारत सरकार और विश्व स्वास्थ्य संगठन के लिए सर्वोच्च प्राथमिकता का विषय है और इसका उद्देश्य बहुत बड़ा है। बच्चे सामाजिक रूप से अधिक सक्रिय होने के कारण संचारणीय (संक्रामक) रोगों के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं। इसके अलावा, पेरेंट्स को टीके की पूरी जानकारी नहीं होने के कारण न्युमोनोकोकल रोग या न्युमोनिया और फ़्लू जैसे श्वसन संक्रमण बच्चों के स्कूल छूटने का एक प्रमुख कारण हैं।
मैक्स साकेत में शिशु रोग विशेषज्ञ (पीडियाट्रिशियन), डॉ. पी.एस.कुमार ने कहा कि बच्चों में उनके प्रथम दो वर्षों के लिए सबसे महत्वपूर्ण दो प्रतिरक्षण टीके न्युमोनोकोकल टीके हैं, क्योंकि हम जब आक्र्रामक न्युमोनोकोकल की पहचान कर रहे हैं तब तक हम बाजी हार चुके हैं। हमने उपचार आरंभ करने में काफी देर कर दी है और भारत में अंतरराष्ट्रीय टीके भी उपलब्ध हैं। यह टीका सभी बच्चों के लिए अनिवार्य है और इसी तरह फ्लू का टीका भी। फ्लू के संचारण और प्रसार का तरीका भी उसी तरह का होता है, विशेषकर मई/अप्रैल के पहले और मानसून के समय उत्तर भारत में स्वाइन फ्लू का संक्रमण और प्रसार बढ़़ जाता है। मैं पेरेंट्स से अनुरोध करता हूँ कि उनके बच्चों के लिए टीके लगवाना कोई वैकल्पिक फैसला नहीं होना चाहिए। पेरेंट्स को टीकाकरण की समय-सारणी का गंभीरता के साथ पालन करना चाहिए और अगर कोई टीका छूट गया हो तो उसे पूरा कर लेना चाहिए।”
डिफ्थीरिया और हूपिंग कफ (कुकुरखाँसी) न्युमोनिया और फ्लू के साथ होने वाली आम बीमारी हैं। हालांकि, इन रोगों को मौसमी फ्लू के उपलब्ध टीकों से रोका जा सकता है, जो वार्षिक खुराक के रूप में बच्चों को रोग से प्रतिरक्षित कर सकता है।
प्रतिरक्षण टीकाकरण नहीं कराने के कारण रोग में वृद्धि देखी जा सकती है। अगर बच्चे ने अपने प्रथम दो वर्षों में टीका नहीं लिया है तो उसकी रोगप्रतिरोधक क्षमता (इम्युनिटी) बाधित हो जाती है। टीके से संक्रमण और अन्य व्याधियों के लिए भी प्रतिरक्षण तंत्र को ताकत मिलती है। भारत में अब लोगों को प्रतिरक्षण टीकाकरण को गंभीरता से लेना आरम्भ कर देना चाहिए। बच्चों में 30% मामले ऐसे हैं जिन्हें टीकाकरण से रोका जा सकता है। प्रतिरक्षण टीका की अवधारणा के बारे में जागरूकता का स्तर बच्चे के जन्म के साथ घर से ही आरम्भ होता है। छोटे-छोटे ग्रामीण इलाकों में भी शिशुओं को टीका दिया जाता है। भारत में जागरूकता काफी बढ़ी है लेकिन अभी इस पर और काम करने की ज़रूरत है।