नई दिल्ली:”जिंदगी और मौत तो ऊपर वाले के हाथ में है, कब कहां कौन, किस समय चल बसेगा यह कोई नहीं जानता, हम सब तो रंगमंच के कलाकार है जिसकी डोर ऊपर वाले के हाथ में है,”
फिल्म आनंद का के इस डायलॉग पर आज सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले के बाद बहस शुरू हो गई, जिसमें कोर्ट की पांच सदस्यीय पीठ ने लाइलाज बीमारी से जूझ रहे मरीजों को इथूनेशिया या इच्छा मृत्यु का अधिकार दे दिया, चिकित्सा जगत में इसे ऐतिहासिक फैसला माना जा रहा है, जबकि वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति से इलाज करने वाले विशेषज्ञ मौत के समय को इच्छा या अनिच्छा से अलग रहते हैं।
लाइफ कोच और हीलर अमरजीत सिंह कहते हैं कि मरीज की मर्जी से मौत निर्धारित नहीं की जा सकती, सभी के हिस्से की मौत का समय भगवान ने निर्धारित कर रखा है। लाइलाज बीमारी के समय भोगा जाने वाला दुख भी कर्म का फल है, जिसको अपने हिस्से का जितना दुख भोगना है वह मरीज को भोगना ही पड़ेगा। हालांकि गाइडेड हीलिंग से ऐसे मरीजों को भी काफी कर तक ठीक किया जा सकता है। दो से तीन सेशन के बाद मरीजों क लाइफ सपोर्ट सिस्टम पर डिपेंडेंसी खत्म हो सकती है, हीलिंग की मदद से मरीज को लाइलाज बीमारी के बाद भी सम्मान जनक जीवन दिया जा सकता है, जिससे वह चिकित्सक से मरने की भीख तो न मांगे। बीमारी का कष्ट मृत्यु तुल्य होता है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मरीज को मरने का अधिकार दे दिया जाएं।
आयुर्वेदाचार्य डॉ. आरपी पाराशर ने बताया कि वाक, पित्त और कफ को मूल तत्व मानकर इलाज करने वाली इस विधि में मरीज को पहले तो किसी भी तरह के ऐसे लाइफ सपोर्ट सिस्टम में नहीं रखा जाता, शिरोधारा, पंचक्रम सहित आयुर्वेद की देशी इलाज की विधि मरीज को मशीनों तक पहुंचने ही नहीं देती, एलोपैथी में दवाओं के साइड इफेक्ट को जानते हुए भी मरीजों को दवाएं लिखी जाती है और अब नये नियम के बाद मरने का भी अधिकार दे दिया गया, कोई यह बताएगा कि मरीज ठीक होने के लिए अस्पताल जाएगा या फिर मरने की भीख मांगने के लिए। इथूनेशिया पर अकेले चर्चा नहीं होनी चाहिए बल्कि एलोपैथी के सफल इलाज करने के कम होते प्रतिशत पर भी चर्चा होनी चाहिए। मल्टीनेशनल दवा कंपनियों के दवाब के बीच मरीज को बेहतर करने की जगह दवाओं और सर्जरी का आंकड़ा बढ़ रहा है।