नयी दिल्ली :अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के डॉक्टरों ने काला मोतियाबिंद को साइलेंट किलर बताते हुए आज कहा कि 40 साल की उम्र के बाद हर 20 में से एक व्यक्ति को इसका खतरा होता है। एम्स स्थित डॉ राजेंद्र प्रसाद नेत्र विज्ञान केंद्र के 51वें स्थापना दिवस के मौके पर यहां एक संवाददाता सम्मेलन को संबोधित करते हुए केंद्र के प्रमुख प्रोफेसर अतुल कुमार ने कहा कि, काला मोतियाबिंद :ग्लूकोमाः साइलेंट किलर है और यह उन लोगों को अधिक होने का खतरा होता है, जिनके परिवार में यह बीमारी किसी को हो चुकी हो।
केंद्र की अन्य प्रोफेसर डॉ रमनजीत सिहोता ने बताया कि, काला मोतियाबिंद होने पर लोगों को लगता है कि उनकी आंखों की रोशनी चली जाएगी, लेकिन ऐसा नहीं है। वक्त पर पता चलने और इलाज मिलने पर इसका इलाज मुमकिन है। उन्होंने बताया, कि काला मोतियाबिंद के मरीज काफी देर से आते हैं जिससे जटिलताएं बढ़ जाती हैं। इस बीमारी में एक बार आंख की रोशनी चली जाने के बाद उसे वापस नहीं लाया जा सकता है। उन्होंने बताया कि यह देश में लोगों की आंखों की रोशनी जाने का एक प्रमुख कारण है। प्रोफेसर रमनजीत ने बताया 40 साल की उम्र के बाद काला मोतियाबिंद होने की संभावना अधिक रहती है। देश में 40 साल से ज्यादा उम्र के हर 20 में से एक व्यक्ति को या तो काला मोतियाबिंद होता है या उसे होने की संभावना रहती है।
वहीं प्रोफेसर डॉक्टर प्रदीप शर्मा ने बताया कि बच्चों की आंखों में तिरछापन है तो इसका बचपन में ही उपचार करा लेना चाहिए। आगे जाकर आंखों का तिरछापन तो सीधा किया जा सकता है, लेकिन व्यक्ति की दोनों आंखों की एक साथ काम करने की क्षमता प्रभावित हो जाती है। डॉ महिपाल सचदेव ने बताया कि आंखों में कैंसर का इलाज भी मुमकिन है और कई मामले तो ऐसे होते हैं जिन्हें सिर्फ इंजेक्शन लगाकर ही सही किया जा सकता है। केंद्र के डॉक्टरों ने बताया कि एम्स में हर साल 2000-3000 चश्मा उतारने के आपरेशन होते हैं। ये आपरेशन सबके नहीं किए जा सकते है। इस आपरेशन के लिए सब लोग फिट नहीं हैं। इसके लिए जांच होती है। यह चश्मा उतारने के आपरेशन ज्यादातर युवा कराते हैं।