निजी एविएशन कंपनी में काम करने वाली रिया को अकसर कैजूअर डे्रस में रहना पड़ता था, जिसके लिए उसे तीन इंच हील की सैंडल पहननी पड़ती थी। पिछले कुछ दिनों से लगातार पंजों में दर्द और सूजन की शिकायत पर उसने डॉक्टर से संपर्क किया, शुरुआत में डॉक्टर ने उसे गरम पानी से सिंकाई और दर्द निवारक बाम लगाने को कहा, लेकिन जब आराम नहीं आया तो पैर की सूजन का पता लगाने के लिए कलर डॉप्लर जांच की गई। लंबे समय तक खड़े रहने और हील की सैंडल पहनने के कारण वह बीते तीन महीने से नसों की बीमारी वैरीकोज वेन की शिकार है। जिसकी वजह से अब नसों में नीला पन भी दिखने लगता था। मामूली सर्जरी कर कैथेटर से रिया की पैरों की सूजन तो दूर हो गई, लेकिन हम से अधिकांश लोग नसों की बीमारी को एडिमा बनने तक पहचान नहीं पाते।
उत्तर भारतीयों में अधिक समस्या
सफदरजंग अस्पताल के सर्जरी विभाग के पूर्व प्रमुख डॉ. गुलशनजीत सिंह कहते हैं उत्तर भारत के 40 प्रतिशत मध्यम वर्गीय युवाओं में यह समस्या देखी जाती है, जिसकी वह उत्तर भारतीयों की नसों का अधिक पतला होना बताया गया है। कम उम्र में शुरू हुई समस्या अकसर लंबे समय तक नजरअंदाज की जाती है और जब पहचान होती है तब तक पैरों की नसों के जरिए दिल को खून पहुंचाने वाली नस का बड़ा हिस्सा बाधित हो चुका होता है। नसों की समस्या को शुरुआत में अधिकांश लोग दर्द निवारक दवाओं या बाम से ठीक करने की कोशिश करते हैं, जबकि ब्लाकेज दूर करने के स्थाई इलाज बिना परेशानी को दूर नहीं किया जा सकता।
क्या है वैरिकोज वेन
आसान भाषा में चिकित्सक वैरीकोज वेन को दिल की तरह पैरों की नसों में पड़ने वाले दौरा बताते हैं जिसमें कि दिल की तरफ खून का प्रवाह करने वाली पैर की नस में रुकावट आ जाती है। सरगंगाराम अस्पताल के इंडोवॉस्कुलर सर्जरी विभाग के डॉ. वीएस वेदी कहते हैं कि सामान्य स्थित में पैरों की वैरिकोज वेन दिल की तरफ की खून की पंपिग करती है, केवल यही एक ऐसी प्रक्रिया होती है जिसमें खून का प्रवाह धरती के गुरुत्वाकर्षण बल के विपरीत दिशा में होता है, इसीलिए वैरीकोज नसों पर प्रवाह का भार भी अधिक होता है। नसों में संकुचन होने के कारण खून दिल की तरफ नहीं जा पाता और पैरों में ही यह गुच्छे के रूप में इकठ्ठा हो जाता है, क्योंकि यह अशुद्ध खून होता है, इसलिए इसके रूकने असर नीलेपन के रूप में नजर आता है। कई बार खून के गुच्छे पैर में जगह-जगह गांठ बनने के रूप में नजर आते हैं तो कभी सूजन और लालिमा भी दिखती है।
क्या है इलाज
वैरीकोज वेन को चिकित्सक हालांकि जानलेवा बीमारी नहीं मानते हैं, बावजूद इसके नसों के संकुचन का इलाज न कराने पर दूरगामी परिणाम दिल के लिए भी नुकसान देह हो सकते हैं। देसी पद्धति में अब भी कई नीम हकीम नसों के संकुचन का इलाज सूजन की जगह कट लगाकर करते हैं, लेकिन इसे एलोपैथी में सुरक्षित इलाज नहीं बताया जाता। ब्लेड द्वारा लगाए गए कट से संक्रमण का खतरा रहता है तो कुछ दिन बाद फिर से रुकावट हो जाती है। वर्तमान में तीन नये तरीकों से पैरों की नसों में खून के प्रवाह को सामान्य रखने का इलाज किया जाता है।
रेडियोफ्रीक्वेंसी एब्लेशन या आरएफए- इसमें कैथ लैब में एक कैथेटर के जरिए नसों की रुकावट की जगह पर पहुंचा जाता है। जांघ से पैर तक पहुंचाए गए दो से तीन एमएम के तार के एक सिरे पर लगे ऑप्टिर फाइबर को रुकावट की जगह तक पहुंचाया जाता है। मॉनिटर पर प्राप्त इमेज में जरुरत के हिसाब से रेडिशन की मात्रा निर्धारित की जाती है। इस विधि से किए गए इलाज में एक ही ऑप्टिक फाइबर कैप्सूल से कई मरीजों को ठीक किया जाता सकता है।
मेडिकल एल्कोहल- इस विधि में रुकावट को जलाने के लिए मेडिकेटेट एल्कोल को कैथेटर की मदद से रुकावट तक पहुंचाया जाता है। इसमें एक प्लेटिनम के क्वाइल का इस्तेमाल होता है, जिसके जरिए एल्कोहल नस तक पहुंच जाती है। प्रभावित जगह पर पहुंची एल्कोहल रुकावट को दूर कर खून के प्रवाह को सुचारू कर देती है। लेकिन इस प्रक्रिया से बाधा दोबारा पैदा होने की संभावना भी बनी रहती है।लेजर ट्रीटमेंट- इसे ईवीएलटी प्रक्रिया भी कहा जाता है जिसका आश्य है इंडोवेन लेजर ट्रीटमेंट इसमें लेजर की निर्धारित हीट को प्रभावित जगह तक पहुंचाते हैं कुछ मरीजों में डॉक्टर रेडियो एब्लेशन को भी लेजर के साथ प्रयोग करते हैं। हालांकि इसके अलावा कई चिकित्सक सर्जरी के जरिए भी वैरिकोज वेन का इलाज करते हैं, जिसमें संकुचित या सूखी नस को पैर से बाहर निकाल दिया जाता है, हालांकि इस प्रक्रिया में बाद में संक्रमण का खतरा बना रहता है। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ और ब्रिटिस मेडिकल काउंसिल ने आरएफए और लेजर तकनीक को वैरीकोज वेन का बेहतर इलाज माना है।
किसको हो सकती है समस्या
-नसों के संकुचन की अधिकांश परेशानी को हालांकि उम्र से जोड़कर देखा जाता है, जबकि नसें डीजरेटिव होने लगती है। लेकिन मध्यम वर्ग के युवाओं में यह समस्या अधिक देखी जा रही है। सफदरजंग अस्पताल में शुरू हुए वेन क्लीनिक में पहले ही दिन 60 मरीजों को देखा गया, जिसमें से 40 मरीज 40 साल से कम उम्र के थे। डॉ. गुलशनजीत सिंह कहते हैं कि उम्र के अलावा कई कारणों से नसों में रुकावट हो सकती है, जिसमें सबसे अधिक देर तक खड़े होकर काम करने वालों में समस्या अधिक देखी जाती है। इस समय शरीर का पूरा भार पैर पर होता है और नसों को दिल की तरफ को खून को प्रवाहित करने के लिए अधिक वेग से काम करना पड़ता है, जिसकी वजह से खून रुकना शुरू हो जाता है। युवाओं में यदि खड़े होकर काम करने के साथ ही यूरीक एसिड की समस्या भी है तो वैरिकोज वेन का खतरा चार गुना बढ़ जाता है।
-प्रसव के बाद प्रत्येक दस में से तीन महिलाओं को वैरिकोज वेन की समस्या होती है। एक से अधिक प्रसव होने पर भी इसका खतरा बढ़ जाता है। जबकि महिलाओं में मोटापे को भी नसों में रुकावट की वजह माना गया है। साधारण एक से अधिक प्रसव के बाद यदि सामान्य रूप से चलने और पैरों में सूजन बनी रहे तो चिकित्सक से संपर्क किया जाना चाहिए।
-कुछ मामलों में वैरीकोज वेन की वजह जेनेटिक भी होती है जिसमें एक तरह का कीपल ट्राइनेरी सिंड्रोम खून में थक्का बनने की वजह बनता है। ऐसे मरीजों में कम उम्र जैसी 12 से 24 साल की उम्र में ही पैरों में झंझनाहट होना, खुजली और सूजन दिखने लगती है। जेनेटिक कारण यदि सही पाए जाते हैं तो वैरीकोज वेन के इलाज के उपायों में विशेष ध्यान दिया जाता है। ऐसे मरीजों में एक बार रुकावट ठीक होने के बाद भी जेनेटिक वजह दोबारा थक्का जमाने की वजह बन सकता है।
आयुर्वेद में है बचाव
आयुर्वेदाचार्या डॉ. मुनीर खान कहते हैं आयुर्वेद में नाड़ी दोष के जरिए बीमारी की पहचान की जाती है, जबकि नाड़ी दोष को दूर करने के लिए इसी पद्धति की वात विधि का इस्तेमाल किया जाता है। पंचकर्म के जरिए शरीर से टॉक्सिक चीजें निकालने के बाद स्वत: ही मांसपेशियों में खून का संचार दोबारा हो जाता है। वैरीकोज वेन के लिए आयुर्वेद मड बाथ को कारगर मानता है। इसके अलावा आहार बदलाव कर खून के संचार को सामान्य किया जा सकता है।
अगर न हो वैरीकोज का इलाज
सरगंगा राम अस्पताल के डॉ. वीएस वेदी कहते हैं कि वैरीकोज वेन का इलाज न कराने या सही समय पर पहचान न होने पर यह एडिमा में बदल जाता है, जिसमें त्वचा संबधी संक्रमण होता है। इसकी पहचान त्वचा लाल पड़ना व चकत्ते के रूप में होती है। जबकि वैरीकोज वेन का इलाज न होने पर यह क्रानिक इंफ्लेशन एंड हाइपरपेगमेंटेशन के रूप में दिखती है, जिसमें त्वचा की उपरी तरह तरह में खून का प्रवाह रूक जाने से त्वचा काली होने लगती है। लिंफोडरमोस्केलोरोसिस को भी वैरीकोज वेन की ही वजह माना जाता है। जिसमें त्वचा के सेल्स अस्वस्थ हो जाते है और त्वचा व मवाद व घाव बनने लगता है। डीप वेन थ्रोमबोसिस को भी इलाज न कराने की ही एक स्थिति बताया जाता है, जिसमें पैर में अल्सर बढ़ जाते है और कई बार अल्सर गैंगरीन में बदल जाते हैं।
बरतें कुछ सावधानी तो बचाव संभव
-दिन की सामान्य गतिविधि के बीच ध्यान रखना चाहिए हमारी गति के अनुसार ही शरीर के अन्य अंगों को भी उतनी ही गति से काम करना पड़ता है। इसलिए एक ही दिशा में लंबे समय तक काम करते रहने पर हर पन्द्रह मिनट में दिशा बदलनी चाहिए।
-महिलाएं को विशेष रूप से यदि नियमित हाई हील पहननी पड़ती है तो वह हफ्ते में एक बार पैडिक्योर करा सकती हैं, इस प्रक्रिया से मांसपेशियों में रक्त का प्रवाह बना रहता है। जबकि गुनगुने पानी में पैर डालकर सिंकाई करने से भी राहत मिल सकती है।
-दिनचर्या में व्यायाम को अवश्य शाामिल करें, धूम्रपान शरीर की किसी भी धमनी को संकुचित कर खून का प्रवाह बाधित कर सकता है, इसलिए धुम्रपान व एल्कोहल का सेवन न करें।
-वसा की जगह खाने में फाइबर का इस्तेमाल अधिक करें, यह कोलेस्ट्राल की मात्रा को बढ़ने से रोकता है।
-ऑफिस में यदि पांच से छह घंटे नियमित खड़े रहकर काम करना है तो प्रत्येक आधे घंटे में एड़ियों के बल खड़े होकर पैरों को आगे की तरफ झुकाए यह प्रक्रिया दो से तीन बार अपनाएं इससे पैरों की नसों की टोनिंग होती है।
निशि भाट