Suicide Prevention Day- डॉक्टरों के तनाव का इलाज कैसे हो?

Suicide Prevention Day, need to take holistic strategy and concrete steps to overcome increasing stress in medical field, shared bitter experiences with junior doctor

नई दिल्ली,

मरीजों का इलाज करने वाले डॉक्टर तनाव से जूझ रहे हैं। वर्क प्रेशर, कंपटिशन, असुरक्षा, डॉक्टर पर की गई हिंसा, सीनियर द्वारा उत्पीड़न आदि ऐसे गंभीर मुद्दे हैं जिसने डॉक्टरों के काम और व्यक्तिगत जीवन को प्रभावित किया है। दस सितंबर, वल्र्ड सुसाइड प्रीवेंशन डे (World Suicide Prevention Day) पर इस बार चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े तनाव की वजहों को प्रमुखता दी गई। अच्छी बात यह है कि वर्क प्लेस पर तनाव की समस्या पर डॉक्टर इस बार खुल कर सामने आए हैं, निजी अस्पताल की अपेक्षा सरकारी अस्पताल में काम करने वाले डॉक्टर तनाव के शिकार अधिक है, वहीं महिला चिकित्सकों ने रात्रि ड्यूटी के समय असुरक्षित महसूस होने की बात स्वीकार की है।

तनाव से जुड़े अपने अनुभव साझा करते हुए सफदरजंग अस्पताल के डॉ़ गौरव सिंह कहते हैं कि उन्होंने सफदरजंग अस्पताल में सर्जरी विभाग में मेरे एक दोस्त ने मेडिकल सुप्रीटेंडेंट के तौर पर ज्वाइन किया। पहले ही दिन ड्यूटी ज्वाइन करने के बाद पांचवें दिन बाद वह घर वापस आया, काम के अतिरिक्त बोझ को देखते हुए उसने सर्जरी विभाग छोड़कर पीडियाट्रिक्स का चयन किया, जहां उसे पांच की जगह दो दिन बाद घर वापस जाने का मौका मिला। एक सरकारी अस्पताल में काम करते हुए डॉ गौरव ने कई तरह की चुनौतियों को साझा किया, पहले तो वहां मरीजों का बोझ बहुत अधिक है, निजी अस्पताल में जहां ओपीडी में एक दिन में दस से बीस और वार्ड में दस मरीज देखे जाते हैं, वहीं सरकारी अस्पताल (आरएमएल, सफदरजंग और एम्स) में ओपीडी में मरीजों के देखने का आंकड़ा 50 से 100 तक पहुंच जाता है, जबकि इनते ही मरीज वार्ड में देखे जाते हैं। इमरजेंसी में ड्यूटी के दौरान एक डॉक्टर को औसतन एक दिन में 300 से अधिक मरीजों को देखना पड़ता है, डॉ़ गौरव कहते हैं कि बीते पांच साल में उन्होनें एक भी शनिवार अपने घर पर नहीं बिताया। इसके अलावा सीनियर डॉक्टर्स का असहयोगात्मक रवैया भी जूनियर डॉक्टरर्स के बीच तनाव का कारण है, बहुत से सीनियर चिकित्सक अपने जीवन में फ्रस्टेडेड होते हैं, अपना तनाव वह दूसरे या जूनियर डॉक्टर्स पर निकालते हैं। हालांकि चिकित्सकों के बीच बढ़ती आत्महत्या की मुख्य वजह इसे ही बताया गया है। एक अन्य वाकये को याद करते हुए डॉ़ गौरव कहते हैं कि दो साल पहले मेडिसिन विभाग में प्रोफेसर मनीष कुमार ने पीजी टू के एक छात्र को थप्पड़ मार दिया था। इसके बार सफदरजंग आरडीए द्वारा शिकायत करते पर प्रोफेसर मनीष को पदोन्नति के साथ आरएमएल अस्पताल भेज दिया गया। इसी तरह न्यूरोसर्जरी विभाग के सहायक प्रोफेसर डॉ़ सत्यशिव ने एमसीएच न्यूरो के एक रेजिडेंट को थप्पड़ मारा था, लेकिन आरोपी प्रोफेसर के खिलाफ किसी तरह की कार्रवाई नहीं हुई। ऐसे अधिक विभागाध्यक्ष हैं जो समय समय पर जूनियर और रेजिडेंट डॉक्टर्स पर अपना गुस्सा निकालते रहते हैं, और उन्हे आत्महत्या करने तक उकसाते रहते हैं। मेडिकल प्रतियोगी परिक्षाओं में धांधली का भी मेडिकल छात्रों के जीवन पर नकरात्मक प्रभाव पड़ रहा है, नीट पीजी, यूजी और एसएस परिक्षाओं के परिणाम, परीक्षा में पारदर्शिता की कमी और अनिश्चित भविष्य के डर से सफदरजंग अस्पताल के एक नीट पीजी छात्र ने कुछ समय पहले आत्महत्या कर ली।

नाइट शिफ्ट में महिला डॉक्टर असुरक्षित

न्यूरोलॉजिस्ट डीएमसी लुधियाना की मेडिकल छात्रा जो पहले सफदरजंग अस्पताल में पोस्टेड थी, डॉ़ परिनिका मेहता और डॉ़ श्रेष्ठा सिंह, जो पहले सफदरजंग एमडी रेडिया में थी अभी मेदांता अस्पताल कार्यरत है। दोनों महिला चिकित्सकों ने बताया कि सफदरजंग अस्पताल में नाइट ड्यूटी करते हुए उन्हें असुरक्षा महसूस होती थी कई बार वार्ड ब्वाय उनपर बेवजह का दवाब बनाते थे और हर महिला डॉक्टर का शोषण करते थे।

ढांचागत सुधार की जरूरत

मेडिकल क्षेत्र में बढ‍्ते तनाव को लेकर समय समय पर कई शोध पत्र जारी किए जाते हैं, जिनके अनुसार सुधार की सिफारिशें की गईं हैं। कुछ समय पहले एम्स के पल्मोनोलॉजी विभाग के प्रमुख और वर्तमान में पीएसआरआई अस्पताल में कार्यरत डॉ़ जीसी खिलनानी ने डॉक्टर और मरीज रिलेशनशिप पर एक शोधपत्र प्रकाशित किया गया। जिसमें डॉक्टर पेशेंट से उपजे तनाव को सुधारने के लिए पाठयक्रम में सुधार की जरूरत को बताया गया, इसके साथ ही शोध पत्र में यह भी बात सामने आई कि किसी समय में डॉक्टर को भगवान समझने वाले मरीजों का अब डॉक्टर पर भरोसा कम हो गया है, जिसका एक बार फिर से मूल्यांकन करने की जरूरत है।

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