नई दिल्ली: कैंसर अभी भी जानेलवा बीमारी बना हुआ है, लेकिन समय पर बीमारी की पहचान होने पर इसका इलाज भी उपलब्ध है। कुछ ऐसी ही स्थिति बच्चों में होने वाले कैंसर को लेकर भी है। हालांकि, यह भी सच है कि बच्चों में कैंसर बहुत ज्यादा तो नहीं है, लेकिन वेस्टर्न कंट्रीज में 10 लाख बच्चों में 110 से 130 बच्चों में इसकी शिकायत मिली है। आबादी के आधार पर पर्याप्त आंकड़े नहीं हो पाने के कारण भारत में इस तरह के मामलों का पूरी तरह अनुमान लगाना भी संभव नहीं है। एक अनुमान के मुताबिक, 14 साल से कम उम्र के बच्चों में कैंसर के लगभग 40 से 50 हजार नए मामले हर साल सामने तो आ ही रहे हैं।
इनमें से बहुत से मामले डायग्नोस नहीं हो पाते। राजीव गांधी कैंसर इंस्टीट्यूट की सीनियर डॉक्टर गौरी कपूर का कहना है कि अक्सर बेहतर स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच नहीं होना या प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा कर्मियों द्वारा बच्चों में कैंसर के लक्षण नहीं पहचान पाना इस जानलेवा बीमारी के बारे में पता नहीं चल पाता है। कैंसर से जूझ रहे बच्चों के जीवित बचने के मामलों में पिछले 30 साल में उल्लेखनीय सुधार हुआ है। आज की तारीख में बच्चों में कैंसर के करीब 70 प्रतिशत मामले इलाज संभव है। यह सुधार बच्चों में कैंसर के इलाज की नई दवाओं की खोज से नहीं आया है, बल्कि यह सुधार तीन चिकित्सा पद्धतियों-कीमोथेरेपी, सर्जरी और रेडियोथेरेपी के बेहतर तालमेल से हुआ है।
गौरी कपूर मानती हैं कि उपलब्ध थेरेपी को इलाज के नए इनोवेशन के साथ मिलाते हुए लगातार किए गए क्लीनिकल ट्रायल से यह सफलता हासिल की जा सकी है। इन क्लीनिकल ट्रायल को उत्तरी अमेरिका और यूरोप में बच्चों के इलाज की दिशा में कार्यरत विभिन्न टीमों ने अंजाम दिया है। यह बात लगातार दिखी है कि इस विशेषज्ञता से जीवन रक्षा के अवसर और गुणवत्ता में सुधार होता है।
अमेरिकन फेडरेशन ऑफ क्लीनिकल ऑन्कोलॉजी सोसायटीज की ओर से 1998 में सर्वसम्मति से प्रकाशित बयान में भी इस पर जोर दिया गया था। बयान में यह भी कहा गया था, ‘समय पर इलाज मिलने से बेहतर नतीजों की उम्मीद बढ़ जाती है। बीमारी को पहचानने और इलाज शुरू होने के बीच के समय को कम से कम करना चाहिए।’
आरजीसीआई में पेड्रियाट्रिक हेमाटोलॉजी और ऑन्कोलॉजी विशेषज्ञ के तौर पर कार्यरत गौरी कपूर के अनुसार भारत में स्वास्थ्य सेवा की सुविधाओं में बहुत विविधता है। यहां सभी आधुनिकतम सुविधाओं और प्रशिक्षित कर्मियों से लैस स्वास्थ्य केंद्र भी हैं और ऐसे स्वास्थ्य केंद्र भी हैं, जहां बच्चों में कैंसर की पहचान और इलाज को लेकर बुनियादी ढांचा भी नहीं है।
जैसा कि सभी विकासशील देशों में होता है, यहां भी देरी से स्वास्थ्य केंद्र पर पहुंचने, बीमारी को पकड़ने में देरी और उचित इलाज के लायक केंद्रों तक रेफर करने की सुस्त प्रक्रिया से इलाज की दर में कमी आती है। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि इलाज का सर्वश्रेष्ठ मौका, पहला मौका ही होता है; पर्याप्त देखभाल के बाद भी अनावश्यक देरी, गलत परीक्षण, अधूरी सर्जरी या अपर्याप्त कीमोथेरेपी से इलाज पर नकारात्मक असर पड़ता है।
एक औसत सामान्य चिकित्सक या बाल चिकित्सक शायद ही किसी बच्चे में कैंसर की पहचान कर पाते हैं। बच्चों में कैंसर के लक्षणों से इस अनभिज्ञता की स्थिति को देखकर समझा जा सकता है कि इसकी पहचान देरी से क्यों होती है या फिर इसकी पहचान क्यों नहीं हो पाती है।
हेमेटोलॉजिकल (खून से संबंधित) कैंसर और ब्रेन ट्यूमर के अलावा बच्चों में होने वाले अन्य कैंसर प्राय: वयस्कों में नहीं दिखते हैं। बच्चों में साकोर्मा और एंब्रायोनल ट्यूमर सबसे ज्यादा होते हैं। वयस्कों में होने वाले कैंसर के बहुत से लक्षण हैं जो बच्चों में बमुश्किल ही दिखते हैं। बच्चों को होने वाले कैंसर में एपिथेलियल टिश्यू की भूमिका नहीं होती है, इसलिए इनमें बाहर रक्तस्राव नहीं होता या फिर एपिथेलियल कोशिकाएं बाहर पपड़ी की तरह नहीं निकलती हैं।
इसीलिए वयस्कों में जांच की उपयोगी तकनीकें जैसे स्टूल ब्लड टेस्ट (शौच में खून की जांच) या पैप स्मीयर का इस्तेमाल बच्चों में संभव नहीं हो पाता। हालांकि कुछ ऐसे लक्षण हैं, जिन्हें देखकर स्वास्थ्यकर्मी बच्चों में कैंसर की पहचान को लेकर सतर्क हो सकते हैं। गौरी कपूर के अनुसार इन लक्षणों के बारे में जागरूकता फैलाने के उद्देश्य से सूचनाओं का एक चार्ट बनाया गया है। हमारा लक्ष्य इसे प्राथमिक स्वास्थ्य कर्मियों तक प्रसारित करना है। हमारा भरोसा है कि इससे स्वास्थ्यकर्मी जरूरत पड़ने पर कैंसर की पहचान कर सकने और ऐसे मरीजों को बच्चों के कैंसर का इलाज करने वाले केंद्रों पर आपात स्थिति (अर्जेंट) बताते हुए रेफर करने में सक्षम बनेंगे।
बच्चों में कैंसर की चेतावनी देने वाले लक्षण :
बच्चों में कैंसर प्राय: दुर्लभ है, लेकिन इलाज के योग्य भी है। जरूरी है कि समय पर इसका पता लग जाए। इसके लिए बेहद सतर्कता जरूरी है। बच्चों में होने वाले कैंसर में सबसे आम ल्यूकेमिया, लिंफोमा और मस्तिष्क या पेट में ट्यूमर हैं।
इनमें से कोई भी लक्षण दिखने पर बच्चे में कैंसर की आशंका होती है :
: पीलापन और रक्तस्राव (जैसे चकत्ते, बेवजह चोट के निशान या मुंह या नाक से खून)
: हड्डियों में दर्द किसी खास हिस्से में दर्द नहीं होता और दर्द के कारण बच्चा अक्सर रात को जाग जाता है, बच्चा जो अचानक लंगड़ाने लगे या वजन उठाने में परेशानी हो या अचानक चलना छोड़ दे बच्चे में पीठ दर्द का हमेशा ध्यान रखें।
: किसी जगह पर लिंफाडेनोपैथी का लक्षण दिखे, जो बना रहे और कारण स्पष्ट नहीं हो कांख/पेट व जांघ के बीच के हिस्से/गर्दन पर दो सेमी व्यास से बड़ी, बिना किसी क्रम के और सख्त गांठों को लेकर हमेशा सतर्क रहें। यदि एंटीबायोटिक देने पर भी दो हफ्ते में इनका आकार कम नहीं हो, तो बचाव जरूरी है। टीबी से संबंधित ऐसी गांठें जो इलाज के छह हफ्ते बाद भी बेअसर रहें सुप्राक्लेविकुलर (कंधे की हड्डी के ऊपर की ओर) हिस्से में होने वाली गांठ
: अचानक उभरने वाले न्यूरो संबंधी लक्षण दो हफ्ते से ज्यादा समय से सिरदर्द सुबह-सुबह उल्टी होना चलने में लड़खड़ाहट (एटेक्सिया) सिर की नसों में लकवा
: अचानक चर्बी चढ़ना। विशेषरूप से पेट, वृषण, सिर, गर्दन और हाथ-पैर पर
: अकारण लगातार बुखार, उदासी और वजन गिरना किसी बात पर ध्यान नहीं लगना और एंटीबायोटिक्स से असर नहीं पड़ना
: आंखों में बदलाव, सफेद परछाई दिखना, भेंगापन के शुरूआती लक्षण, आंखों में अचानक उभार (प्रोप्टोसिस), अचानक नजर कमजोर होने लगना
सोर्स: आईएएनएस